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Friday, October 31, 2014

सम्मान का महत्व समझने वाले व्यक्ति का ही अभिवादन करें-मनुस्मृति के आधार पर चिंत्तन लेख(samman ka mahatva samajhne wale vyakti ka hi abhivadn karen-A Hindi hindu religion thought based on manu smriti)



            आमतौर से यह माना जाता है कि लघु श्रेणी के मनुष्य को श्रेष्ठ का हाथ जोड़कर या सिर झुकाकर अभिवादन करना चाहिये।  यह भी माना जाता है कि जहां हाथ मिलाने का अवसर हो वहां विशिष्ट व्यक्ति को पहले हाथ बढ़ाना चाहिये।  कंधे पर हाथ रखकर आपसी मिलने की परंपरा में भी विशिष्ट व्यक्ति लघु श्रेणी के व्यक्ति को अपनी पहल से सम्मान देता है।  गले मिलने की प्रक्रिया में भी यही बात है। दो व्यक्तियों की पारस्परिक भेंट में हमेशा ही अभिवादन  की प्रक्रिया से ही यह संकेत मिल जाता है कि दोनों के आपसी संबंध मधुर या कटु हैं। जहां संबंध मधुर होते हैं वहां अभिवादन के समय मिलने वालों की आंखों में सद्भाव का रस बहता दिखता है।  जहां कटु हों वहां चेहरे के हावभाव प्रमाणित कर देते हैं।

मनु स्मृति मिएँ कहा गया है कि

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यो न वेत्यभिवादस्य विप्रः प्रत्यभिवादनम्।
नाभिवाद्य स विदुषा यथा शूर्दस्तथैव सः।।


           
हिन्दी में भावार्थ-जो अभिवादन का उत्तर देना नहीं जानता उसे प्रणाम नहीं करना क्योंकि वह इस सम्मान के अयोग्य होता है।

अवाच्यो तु या स्त्री स्वादसम्बद्धा य योनितः।
भोभवत्पूर्वकं त्वनेमभिभाषेत धर्मवित्।।


           
हिन्दी में भावार्थ-धर्म का ज्ञान रखने वाले को चाहिए कि वह दूसरे ज्ञानी को कभी भी नाम से संबोधित न करे भले ही वह उससे छोटी आयु का क्यों न हो। उसको हमेशा सम्मान से संबोधित करना चाहिए।
            हमेशा मीठी वाणी में बोलकर दूसरों को प्रसन्न करना चाहिए। अपने से बड़ों का सम्मान करना हमारा धर्म है। निसंदेह इस संसार में विनम्र व्यवहार से मनुष्य विजय प्राप्त करता है। मगर इस संसार में ही लोग भी दो प्रकार के होते हैं-एक आसुरी संपदा तो दूसरे दैवीय संपदा लेकर उत्पन्न होते हैं, यह बात भी ध्यान रखने योग्य हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो विनम्र व्यवहार को कायरता और उदारता को कमजोरी समझकर दुर्व्यवहार करने पर आमादा हो जाते हैं। ऐसे लोगों को दंडित करना भी हमारा धर्म है।
      इसलिये जो लोग अभिवादन का उत्तर न देते हों या अहंकारवश मजाक उड़ाते हों उनका कभी स्वयं अभिवादन नहीं करना चाहिए। जहां तक हो सके उनके सामने आने से बचना चाहिए। इस संसार में आसुरी संपदा लेकर उत्पन्न हुए कुछ लोग ऐसे हैं जिनका अभिवादन करने पर सिवाय अपमान के कुछ नहीं मिलता। उनका अभिवादन करना तो दूर उनके चेहरे की तरफ दृष्टि नहीं डालना चाहिए।
      उसी तरह दैवीय संपदा लेकर उत्पन्न सहृदयजनों का सम्मान करना भी आवश्यक है भले ही आयु में वह छोटे क्यों न हों? सच बात तो यह है कि योग्यता, प्रतिभा तथा सज्जनता के गुणों होने के लिये आयु का छोटा या बड़ा होना जिम्मेदार नहीं है। अनेक लोग बड़ी आयु होने पर भी अपना विवेक नहीं खोते। अतः अपने से कम आयु के व्यक्ति की योग्यता देखकर उसका सम्मान करना चाहिए। सामने आने पर उसे पहले अभिवादन करना भी अच्छी बात है। उस समय पहले अभिवादन करने में संकुचित मानसिकता नहीं दिखाना चाहिए।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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Thursday, October 23, 2014

सांई बाबा की भक्ति के विरुद्ध अभियान का औचित्य नहीं-हिन्दी चिंत्तन लेख(sai baba ki bhakti ke viruddh abhiyan ka auchitya nahin-hindi thought article on sai baba of shirdi)



            एक हिन्दू धार्मिक गुरु ने शिर्डी के सांई बाबा की भक्ति के विरुद्ध अभियान चलाया हुआ है। इसमें एक तर्क यह दिया जा रहा है कि उनकी पूजा करने पर लक्ष्मी नाराज हो जाती है।  हमें हैरानी इस बात की है कि स्वयं को ब्रह्मज्ञानी कहलाने वाले लोग श्रीमद्भागवत गीता के संदेशों का आशय नहीं समझते इसी कारण उसमें वर्णित  मनोविज्ञान से वह अनभिज्ञ हैं। श्रीमद्भागवगीता में चार प्रकार के भक्तों के-आर्ती, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी का-वर्णन किया गया है। इन चारों का अस्तित्व रहना ही है इसलिये ज्ञानी को सहअस्तित्व का भाव रखना चाहिये। श्रीमद्भागवत गीता में  यह भी बता दिया है कि ज्ञानी भक्त जो भगवान को प्रिय हैं उनकी संख्या नगण्य ही रहेगी। इसलिये सारे संसार को ज्ञानी बना देने का सपना देखना महान अज्ञानता का लक्षण है।
            हम यहां सांईं बाबा की भक्ति  के समर्थक नहीं है पर विरोध भी नहीं करते।  जिन धार्मिक गुरु ने सांई बाबा की भक्ति का विरोध किया उन्होंने ही दलित वर्ग के मंदिर प्रवेश को भी निषिद्ध बताया है।  ऐसा लगता है कि हमारे देश में कुछ धर्माचार्य समाज में विघटन कर अपना काम सिद्ध करना चाहते हैं। कहा जाता है कि दो हजार वर्ष यह देश गुलाम रहा पर यह सत्य कोई नहीं स्वीकार कर रहा कि इसके लिये हमारा सामाजिक वैमनस्य रहा है। इस तरह का वैमनस्य फैलाना भारतीय धर्म के विरोधियों को अपने ऊपर प्रहार करने का अवसर देने जैसा होगा।
            वैसे तो समस्त मंदिरों में आमजन का प्रवेश सहजता से होता है  पर जिनमें निजी प्रभाव अधिक होता है वहां आम श्रद्धालू अपनी सुविधा से जाता है।  इसके अलावा हमारे जहां मूर्तिपूजा अधिक होती है इसलिये चारों प्रकार के भक्त मंदिरों जाते जरूर हैं पर आर्ती और अर्थार्थी तो अपने काम की सिद्धि के लिये इधर उधर चक्कर भी मारते हैं।  उनकी पीड़ाओं का निवारण तथा कार्यसिद्ध समय के अनुसार स्वतः होता ही है पर किसी का यकीन प्राचीन देवता से हटकर किसी सांसरिक मनुष्य पर जम जाये तो उसे समझाना कठिन है। सांसरिक मनुष्य पर यकीन करने वाले मनुष्य को रोकना या धमकाना जोखिम भरा भी हो सकता है यह बात धर्म को समूह में बनाये रखने वाले कथित धार्मिक विद्वानों को समझना चाहिये।
            अगर मान लीजिये किन्हीं सांईं बाबा के भक्तों के पास भले ही  भाग्य से धन आया हो पर वह उनकी कृपा मानता है तो वह ऐसे धर्माचार्यों पर गुस्सा होंगे। आज आप उनको हिन्दू कहकर दुत्कार रहे हो कल वह धर्म परिवर्तन करने लगे तो क्या करेंगे? हालांकि इस तरह की आशंका  इसलिये नहं है क्योंकि सांईबाबा के अधिकतर भक्त हिन्दू ही हैं और अन्य देवी देवताओं के प्रति उनमें हृदय में आस्था कम नहीं है।  यही कारण है कि सांई बाबा के मंदिरों में अन्य देवताओं की मूर्तियां भी स्थापित की जाती हैं। वहां रामनवमी, कृष्णजन्माष्टमी, गणेश चतुर्थीं और दीपावली जैसे पर्व मनाये ही जाते हैं।
            मुख्य बात यह है कि एक योग साधक और गीता पाठक होने के नाते हम दूसरे की भक्ति पर आक्षेप करना अनुचित मानते हैं। वैसे ही हमारे देश में आर्थिक, सामाजिक तथा शारीरिक तनाव अधिक हैं ऐसे में कोई सांई बाबा की भक्ति से प्रसन्नता प्राप्त कर रहा है तो एक ज्ञानी की नज़र में बुरा नहीं है।  अब इस तरह के अभियान को अधिक हवा देना ठीक नहीं है।  जहां तक इस तरह के अभियान से संतोषी माता की भक्ति समाप्त करने का दावा किया जाता है पर यह उनका भ्रम है।  आज भी अनेक लोग संतोषी माता का व्रत रखते हैं। इसलिये सांईबाबा के विरुद्ध अभियान चलाने वाले इस तरह के दावे कर अपने को सिद्ध नहीं प्रमाणित कर सकते।


दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Saturday, October 18, 2014

अमृतसर के स्वर्ण मंदिर यात्रा से हुई अध्यात्मिक स्वर्णिम अनुभूति-हिन्द लेख(amrisar ke swarn mandir ya harmindar sahib ki yatra se mili swarnim anubhuti, A Golden expirence of A Golden temple in amritsar)



            हमने  11 अक्टुबर से 13 अक्टुबर 2014 शनिवार से मंगलवार तक अमृतसर के स्वर्ण मंदिर-जिसे हरमिंदर साहब भी कहा जाता है-पर जो समय बिताया वह वास्तव में स्वर्णिम स्मृति की तरह हमारे मन मस्तिष्क में जीवन भर रहेगा। वहां रहने के लिये गुरुद्वारा प्रबंध समिति के कार्यकर्ता ने हमें श्री बाबा दीपसिंह बाबा निवास प्रदान किया।  वह हरमिंदर साहिब से करीब एक किलोमीटर दूर होगा। उसे ढूंढने में हमें परेशान हुई। ऐसा लगा कि हमें असहयोग के मार्ग पर धकेला गया पर वहां कमरे में तीन दिन रहे तब लगा कि जिन महानुभाव ने हमें वहां भेजा उनकी हृदय में हमारे लिये सामान्य पर पवित्र भाव ही था।

            जिस तरह की सफाई, पेयजल तथा अन्य व्यवस्थायें वहां देखने को मिलीं वह रोमांचित करने वाली थी।  उस निवास के सामने ही श्रीबाबादीपसिंह गुरुद्वारा था जहां हमने हरमिंदर साहिब के बाद सबसे अधिक भीड़ देखी।  वहां लंगर और चाय की व्यवस्था भी थी।  हरमिंदर साहिब में तो लंगर की व्यवस्था इस तरह चल रही थी जैसे कि कारखाना या कोई उद्योग चलता हो।  बर्तनों के आपस में टकराने से निकले स्वर ऐसे आभास दे रहे थे कहीं कोई मशील चल रही हो।  हरमिंदर साहिब के सामने ही रामदास सराय में पर्यटकों के लिये अपनी देह स्वच्छ करने की व्यवस्था थी। वहां सेवादार इस तरह सक्रिय थे जैसे कि किसी कारखाने में कार्यरत हों। उसकी निरंतर सफाई इस तरह जारी थी जैसे कि वहां व्यवसायिक स्थान हो। 

            सभी स्थानों पर लंगरों  नियमित सेवादार तो नियुक्त थे पर ऐसे लोग भी कार्य कर रहे थे जिनके हृदय में गुरुभक्ति कूट कूट कर भरी रहती है। लंगर में अनेक आम तीर्थप्रेमी भी बर्तन आदि साफ करने का काम कर अपने हृदय के सेवा भाव का परिचय दे रहे थे।  सिख गुरुओं ने परोपकार तथा श्रम को अत्यंत महत्व दिया है।  हमारा मानना तो यह है कि आज के युग में श्रीमद्भागवत गीता तथा गुरुग्रंथ साहिब के संदेशों में जिस तरह अकुशल शारीरिक श्रम को सम्मान योग्य माना गया है उस हृदय में धारण करना ही चाहिये।
गुरु ग्रंथ साहिब में कहा गया है कि
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जो रतु पीवहि माणसा तिन किउ निरमलु चीतु।
            हिन्दी में भावार्थ-जिस व्यक्ति में दूसरे मनुष्य का रक्त पीने की आदत है उसका मन कभी निर्मल हो ही नहीं सकता।
आप गवाए सेवा करे ता किछ पाए मान
            हिन्दी में भावार्थ-अपना अहंकार त्याग कर सेवा करें तभी कुछ सम्मान मिल सकता है।
            कहा जाता है कि सिख धर्म का प्रादुर्भाव ही हिन्दू संस्कृति या धर्म की रक्षा के लिये हुआ।  यह अलग बात है कि आधुनिक  राजनीतिक द्वंद्वों के चलते  हिन्दू और सिख धर्म को प्रथक प्रथक बताने का प्रयास हो रहा है।  हरमिंदर साहिब में जाने पर यह पता चलता है कि वहां हर धर्म, वर्ण और समाज का धर्म प्रेमी अत्यंत श्रद्धभाव  हृदय में स्थापित कर आता है।  भारत ही नहीं वरन् पूरे विश्व में सिख धर्म गुरुओं के प्रति सकारात्मक रुचि है।  आज जब भौतिक विलासिता के प्रभाव में शारीरिक श्रम के अभाव हो गया है तब हम मनुष्यों में बढ़ते मानसिक रोगों का दुष्प्रभाव भी देख सकते हैं।  इतना ही नहीं धन, पद और प्रतिष्ठा का संग्रह कर चुके लोगों में जो अहंकार भाव दिखता है उसकी वजह से समाज में वैमनस्य भी बढ़ा है।  हालांकि लोगों का धर्म के प्रति झुकाव भी बढ़ा दिखता है पर सच यह है कि धार्मिक स्थानों पर पर्यटन की दृष्टि से मन बहलाने में ही उनकी रुचि अधिक दिखती है।  गुरुओं के संदेशों पर अमल करने वाले कितने हैं यह अलग से चर्चा का विषय है पर एक बात निश्चित है कि गुरु सेवा में निरंतर निष्काम भाव से लगे लोगों गुरुग्रंथ साहिब के संदेशों के प्रचार में सक्रियता प्रशंसनीय है।  इसके अलावा जो परोपकार में लगे हैं तो उन्हें ज्ञानी ही कहा जाना चाहिये।
            एक योग साधक तथा ज्ञान प्रिय होने के नाते अमृतसर की यह यात्रा हमारे लिये अत्यंत रुचिकर रही। हमने जो देखा उस पर लगातार लिखते ही रहेंगे। हम जैसे लोगों के लिये भौतिक स्वर्ण से अधिक ज्ञान का स्वर्ण महत्वपूर्ण रहता है जो  ऐसे स्थानों पर जाने पर स्वाभाविक रूप से प्राप्त होता है।


दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
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Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
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Saturday, October 4, 2014

फेसबुक के हिन्दी भाषी प्रारूप में अनावश्यक हिंग्लिश शब्द न लायें-हिन्दी लेख(unneccesary chenge in facebook hindi languase-hindi article on facebook)





            जनसंपर्क, प्रचार तथा लोकप्रियता का जो बाज़ार हिन्दी भाषियों से कमाते हैं उनमें आत्मविश्वास की  भारी कमी है या नित्य चलायमान बने रहने की परंपरा के तहत भाषा से छेड़छाड़ उसके प्रबंधक तथा कार्यकर्ता कर रहे हैं यह कहना कठिन है। हम बात कर रहे हैं फेसबुक पर अभी हाल ही में हिन्दी प्रारूपण में हिंग्लिश शब्द जोड़ने की।  अभी तक हमें दो शब्द दिखाई दिये। एक तो हिन्दी के पुष्टिकरण  की जगह हिंग्लिश  का कंफर्म (conform) दूसरा  मुखपृष्ठ की  जगह होम (home) कर दिया गया है। हमारी दृष्टि से अब समय आ गया है कि हिंग्लिश और हिन्दी वालों को अलग अलग कर देखा जाना चाहिये। कम से कम स्थापित, प्रचलित तथा आदत में जो शब्द आदत में आ गये हैं, उनमें हिन्दी प्रारूपण अपनाने वाले अंतर्जालीय प्रयोक्ताओं का हृदय विदीर्ण करने के लिये ऐसे परिवर्तन नहीं करना चाहिये जो अनावश्यक हों। हमारा मानना है कि फेसबुक पर किये गये ऐसे परिवर्तन एकदम अनावश्यक हैं।
            पहली बात तो हम यह बता दें कि हमने आज तक अपने संपर्क में आये जितने भी युवाओं को फेसबुक पर कार्य करते देखा है वह अंग्रेजी प्रारूप का उपयोग करते हैं।  वह सभी हिंग्लिश वाले हैं। उनमें से कोई भी हिन्दी प्रारूप का उपयोग करना चाहेगा यह हमें लगता नहीं है।  हम जैसे अंग्रेजी से निरक्षर लोग ही फेसबुक का हिन्दी प्रारूप अपनाये हुऐ हैं। देवनागरी हिन्दी में यह सोचते हुए भी लिखना जारी रखे हुए हैं कि इससे व्यापक आधार पर अभिव्यक्ति का आधार नहीं मिलता।  हिंग्लिश वाले हमसे पढ़ेंगे या हम उनको पढ़ायेंगे यह भ्रम हमें नहीं है। हिन्दी दिवस पर हिन्दी प्रयोकताओं को सामान्य समझने वाले अंग्रेजी प्रेमी भाषाई व्यवसायिक विद्वानों के कथित महान विचार सुनने के पश्चात् तो हमें यह भी लगने लगा है कि हिन्दी में हिंग्लिश मिलाने पर प्रतिकूल लिखना भी व्यर्थ है।
            यह पता नहीं है कि फेसबुक पर इस तरह का  परिवर्तन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विद्वान भारतीय सलाहकारों की राय पर हुआ या फिर भारत में स्थित किन्हीं कार्यकर्ताओं या उनके समूह ने ऐसा कर अपनी निरंतर सक्रियता का प्रमाण देकर प्रबंधकों को प्रसन्न करने का प्रयास किया यह कहना कठिन है।  कम से कम हिन्दी भाषियों को प्रयोक्ता की तरह अपने रचना उत्पादों के लिये बाज़ार बनाने वालों को अब हिंग्लिश तथा हिन्दी भाषियों को अलग अलग दृष्टिकोण से देखने का विचार कर ही लेना चाहिये।  उन्हें अब अंग्रेजी रोमन लिपित अंतर्जालीय प्रारूपों में हिन्दी से लोकप्रिय या प्रचलित शब्द रोमन लिपि में लिखना चाहिये।  हिन्दी प्रारूपण का उपयोग केवल हम जैसे अंग्रेजी से अपरिचित लोग ही करते हैं।  उनको ऐसे होम या कंफर्म शब्द अटकते हुए पढ़ने पढ़ते हैं।  स्वर के साथ ही सोच भी तोतली हो जाती है। हिन्दी प्रारूपण एक बार बनाकर उससे मुंह ही फेर लें तो अच्छा है क्योंकि हम जैसे प्रयोक्ता उसी से खुश रहते हैं।


दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
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