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Saturday, March 29, 2014

अध्यात्मिक पुरुष और देहधारी के भेद का ज्ञान आवश्यक-पतंजलि योग दर्शन पर आधारित चिंत्तन लेख(adhyatmik purush aur dehdhari ke bhed ka gyan avashyak-A hindu religion thought ariticle based on patanjali yoga darshan)



      हमारी इंद्रियां स्वतः काम करती हैं जबकि हमारा भ्रम यह रहता है कि हम उन्हें चला रहे हैं।  कान, नाक, आंख, जीभ बुद्धि तथा हाथ पांव स्वचालित हैं।  हम सोते हैं तब भी वह प्रयासरत रहते हैं जबकि उस समय हम मोक्ष की स्थिति में होने के कारण उन पर अंतदृष्टि नहीं रख पाते।  ऐसे में जाग्रत अवस्था में उनकी सक्रियता देखकर यह सोचते हैं कि हम सारी क्रियायें कर रहे हैं।  इन इंद्रियों के स्वतंत्र होने का यह भी प्रमाण है कि रात्रि को ऐसे विचित्र स्वप्न आते हैं जिनके बारे में हम जाग्रत अवस्था में सोच भी नहीं पाते। जैसा कि आधुनिक विज्ञान कहता है कि सोते समय मनुष्य का वह दिमाग काम करता है जो जाग्रत अवस्था में सुप्त होता है।
      इसकी अनुभूति हम तभी कर सकते हैं जब अपने हृदय की तरफ दृष्टिपात करें।  यह क्रिया ध्यान से ही हो सकती है। जब हम शांत होकर अपना ध्यान हृदय की तरफ केंद्रित करेंगे तब हमारी सारी इंद्रिया शिथिल हो जाती है।  जब ध्यान की चरम स्थिति समाधि आती है तब हमारा संपर्क अपने आप यानि आत्मा से हो जाता है। उस समय यह पता चलता है कि बुद्धि और हृदय में भेद है। इस भेद का ज्ञान न होने पर इंद्रियां जिन भोगों के साथ संपर्क करती हैं वह हमारे प्रतीत होते हैं।  ऐसा लगता है कि हम भोग कर रहे हैं। सच यह है कि इंद्रियां सांसरिक विषयों से संपर्क स्वाभाविक रूप से करती हैं और हम उनको अपना भोग समझ बैठते हैं। देह को जीवित रखने का प्रयास इंद्रियां स्वचालित ढंग से करती हैं और हमें लगता है कि हम सारी क्रियायें कर रहे हैं। इसे तभी समझा जा सकता है जब हम हृदय के विषय में निरंतर ध्यान के माध्यम से उसकी क्रियायें देखते रहें।

पतंजलि योग दर्शन में कहा गया है कि
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हृदये चित्त संवित्।।
     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-हृदय में संयम करने से चित्त के स्वरूप का ज्ञान हो जाता है।
सत्त्वपुरुषयोरत्न्तासंकीर्णयोः प्रत्यायाविशेषो भोगःपराथत्स्वार्थसंयमकात्पुरुषज्ञानम्।।
      सामान्य हिन्दी में भावार्थ-बुद्धि और पुरुष परस्पर भिन्न हैं। इन दोनों के भेद प्रतीत न होना ही भोग है। परार्थ प्रतीति से भिन्न जो स्वार्थ प्रतीति है उसमें संयम करने से संयम हो जाता है।

      अक्सर हमारे अंतर्मन में अच्छा भोजन करने, सुंदर दृश्य देखने, सुगंध के नासिका में आने, कानों से मधुर स्वर सुनने और हाथों से प्रिय वस्तु या व्यक्ति को छूने की इच्छा होती है। यह सब हमारे मन और बुद्धि का खेल है। जाग्रत अवस्था में इंद्रियां इन्हीं इंद्रियों के वशीभूत होकर काम करती है तो रात्रि में इनके बिना भी उनकी सक्रियता बंद नहीं होती।  हम सोते समय भी सांस ग्रहण करते हैं और मस्तिष्क सपने देखता है तो हाथ पांव भी हिलते हैं पर ज्ञान के अभाव में यह सत्य नहीं समझ पाते कि यह उनका स्वाभाविक कर्म है। उस समय हमारा हृदय शांत होता है इसलिये उसकी अनुभूति नहीं कर पाते। अगर हम योगासन, ध्यान, मंत्र जाप और अध्यात्मिक पाठ  निरंतर करते रहें तब जाग्रत अवस्था में इन इंद्रियों की सक्रियता से कभी स्वयं को जुड़ाव अनुभव नहीं होगा। पुरुष और बुद्धि का भेद जानने के बाद हम   उन पर नियंत्रण कर सकते हैं। इतना ही नहीं निरंतर योगाभ्यास करने पर  यह अनुभव भी कर सकते हैं कि हम एक नहीं दो लोग हैं।  एक अध्यात्मिक पुरुष और दूसरा देहधारी! यह विचार आने पर हमारा आत्मविश्वास बढ़ जाता है।  हम लोगों ने देखा होगा कि योगी लोग कभी अपने अकेलेपन को लेकर चिंतित नहीं होते। योगाभ्यास तथा ज्ञान साधना से उनके बाह्य ही नहीं बल्कि आंतरिक व्यक्तित्व में दृढ़ता आती है।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Tuesday, March 25, 2014

समाज की स्थिरता से ही राष्ट्र की रक्षा संभव-कौटिल्य के अर्थशास्त्र के आधार पर चिंत्तन(samaj ki sthirta se rashtra ki raksha sambhav-kautilya ka arthshastra ka aadhar par chinntan lekh)



      हम जब किसी राष्ट्र की स्थिरता की बात करते हैं तो यह भूल जाते हैं कि उसमें सक्रिय सामाजिक समूहों में भी स्थिरता होना चाहिये।  समाज की  परिवारों  और परिवारों  की स्थिरता व्यक्ति में अंतर्निहित होती है।  हम आज जब देश की स्थिति को देखते हैं तो राष्ट्र की स्थिरता को लेकर भारी चिंत्तायें व्याप्त हैं। इधर हमारे यहां विकास के दावे भी किये जा रहे हैं उधर राष्ट्र में व्याप्त सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक तनावों की चर्चा भी हो रही है। यह विरोधाभास हमारी उन नीतियों का ही परिणाम है जिसमें किसी मनुष्य के लिये  अर्थार्जन ही एक श्रेष्ठ और अंतिम लक्ष्य माना जाता है।  अर्थार्जन में भी केवल पेट की रोटी तक ही सीमित लक्ष्य माना गया है।  यह आज तक समझा नहीं गया कि उदर की भूख की शांत होने के बाद भी मनुष्य ही नहीं पशु पक्षी भी  सीमित नहीं रहते। सभी जीवों मे नरमादा होते हैं और जो कहीं न कहीं अगली पीढ़ी का सृजन करते हैं।  यह कामुक प्रवृत्ति सभी में होती हैं पर मनुष्य को उसके लिये भी अर्थ का सृजन संचय के लिये  करना पड़ता है। पशु पक्षी विवाह पद्धति नहीं अपनाते जबकि मनुष्य को इसे सामाजिक बाध्यता के रूप में स्वीकार करना ही पड़ता है। मनुष्य की संचयी प्रवृत्ति का ऐसे अर्थशास्त्री कतई अध्ययन नहीं करते जिनका लालन पालन धनपति करते हैं।
      हमारे देश के कुछ विद्वान अर्थशास्त्री गरीबी रेखा की सीमा के लिये एक राशि तय करते हैं। उसमें वह मनुष्य के खाने और कपड़े का ही हिसाब रखते हैं। उनका मानना है कि एक मनुष्य को खाने और कपड़े के अलावा जिंदा रहने के लिये कुछ अन्य नहीं चाहिये।  वातानुकूलित कक्षों में उनके इस चिंत्तन को मजाक ही माना जाता है।  वह मनुष्य में व्यापत उस संचयी प्रवृत्ति का आभास होते हुए भी तार्किक नहीं मानते जिसमें वह विश्ेाष अवसरों पर व्यय करने के लिये बाध्य होता है। वह मनुष्य को केवल एक पशु की श्रेणी में रखकर अपनी राय देते हैं।  इस तरह के चिंत्तन ने ही देश की अर्थव्यवस्था को भारी निराशाजनक दौर में पहुंचा दिया है। महंगाई, बेरोजगारी तथा अपराध देश में बढ़ते जा रहे हैं।

कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि

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जलान्नायुधयन्त्राछृर्य धीरयोधरधिष्ठितं।

निवासाय प्रशस्यन्ते भमुजां भूतिच्छितां।।

     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-जल, अन्न, शस्त्र और यन्त्रों से सम्पन्न, धीर वीर योद्धाओं के साथ ही योग्य मंत्रियों तथा आचार्यों से रक्षित दुर्ग की ही महत्ता होती है।

      एक तरह से हम देश में शुद्ध रूप से पूंजी पर आधारित अर्थव्यवस्था  का एक विकट रूप देख रहे हैं जिसमें मानवीय संवेदनाओं के साथ ही संस्कृति, संस्कार और परंपराओं के निर्वाह की बाध्यता को कोई स्थान नहीं है। सच बात तो यह है कि अमीर और गरीब के बीच स्थित एक समन्वित कड़ी मध्यम वर्ग रहा है जिसकी परवाह किसी को नहीं है।  यह लड़खड़ा रहा है और इससे जो समाज में अस्थिरता का वातावरण है वह अत्यंत चिंत्ताजनक है।  यह वर्ग अन्य दोनों वर्गों की बौद्धिक सहायता करने के साथ ही अपने श्रम के साथ ही सक्रिय भी रहता है।
      हम यहां इस वर्ग के लिये कोई याचना नहीं कर रहे बल्कि इतना कहना चाहते हैं कि देश की स्थिरता में इसी वर्ग का अन्य दोनों की अपेक्षा कहीं अधिक योगदान रहता है। अगर देश में समाज में निजी पूंजी का प्रभाव बढ़ा और मध्यम वर्ग केवल कंपनियों की नौकरी के इर्दगिर्द ही सिमटा तो कालांतर में ऐसे संकट उत्पन्न होंगे जिसकी कल्पना तक हम अभी नहीं कर सकते।  इसलिये देश के आर्थिक रणनीतिकारों को इस तरफ ध्यान जरूर देना चाहिये।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Sunday, March 23, 2014

रहीम संदेश-गुणीजन राजा तो राजा गुणीजनों की परवाह नहीं करता(rahim sandesh-gaunijan raja to raja gunijanon ki paravah nahin karata)



      श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार इस संसार  में तीन प्रकृत्तियों के लोग पाये जाते हैं-सात्विक, राजसी और तामसी।  इसे हम यूं भी कह सकते हैं कि इन तीन प्रकार की प्रकृत्ति के लोग संसार में हमेशा मौजूद रहेंगे और कोई कितना भी ज्ञान ध्यान कर ले किसी भी एक प्रकार की  मनुष्यों की प्रकृत्ति को यहां से विलुप्त नहीं कर सकता।  तामसी प्रकृत्ति के लोग इस संसार में न स्वयं को बल्कि दूसरों को भी कष्ट देते हैं पर अगर कोई चाहे कि अपने अभियान या आंदोलन से सारे संसार के मनुष्यों को सात्विक या राजसी प्रकृत्ति का बना दे तो वह संभव नहीं है। यह अलग बात है कि कथित रूप से अनेक धर्मों के ठेकेदार अपने कथित शांति अभियानों में पूरे विश्व में स्वर्ग की स्थापना का सपना दिखाते हैं।
      इस संसार में सात्विक लोगों की अपेक्षा राजसी प्रकृत्ति के लोगों की संख्या अधिक रहती है।  इसका कारण यह है कि इस देह का भरणपोषण करने के लिये अर्थकर्म में राजसी प्रकृत्ति से ही सक्रिय रहा जा सकता है।  यहीं से सात्विक और राजसी प्रकृत्ति का अंतर्द्वंद्व प्रारंभ हो जाता है।  सात्विक प्रकृत्ति के लोग एक सीमा तक ही राजसी कर्म करने के बाद अपनी मूल सात्विक प्रकृत्ति में स्थिर हो जाते हैं जबकि राजसी प्रकृत्ति के लोग हमेशा ही उसमें लिप्त रहते हैं।  राजसी कर्म में सीमा तक सक्रिय रहने के कारण सात्विक लोग उच्च राजसी पुरुषों की परवाह नहीं करते तो राजसी पुरुष उनकी सीमित आर्थिक उपलब्धियों तथा गतिविधियों  के कारण उनका सम्मान नहीं करते।

कविवर रहीम कहते हैं कि

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भूप गनत लघु गुनिन को, गुनी गनत लघु भूप।

रहिमन गिर तें भूमि लौं, लखो तो एकै रूप।

     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-राजा गुणीजनों को अपने से छोटा मानता है तो गुणीजन भी राजा की परवाह नहीं करते। सच्चाई यह है धरती से पर्वत तक सभी लोग एक समान ही है।
      एक बात सत्य है कि इस विश्व में सभी लोग एक समान हैं। सभी का दाता राम है।  राजसी पुरुषों में यह खुशफहमी रहती है कि वह अपने परिवार तथा समाज का संचालन कर रहे हैं जबकि सात्विक प्रकृत्ति तो अकर्मण्यता के भाव की जनक है। इतना ही नहीं वह सात्विक लोगों को स्वार्थपरक या उदासीन कहकर निंदा भी करते हैं।  इसके विपरीत सात्विक लोग यह मानते हैं कि राजसी कर्म में अधिक लिप्पता तथा उपलब्धि अनावश्यक रूप से संकट पैदा करती है।  इस प्रकार का द्वंद्व स्वाभाविक है पर सात्विक लोग इसे एक सहज संबंध मानते हैं तो राजसी पुरुष इस द्वंद्व में उपेक्षासन के माध्यम से अपनी नाराजगी दिखाते हैं।  वह सात्विक लोगों से मुंह फेरकर यह दिखाते हैं कि समाज में उनकी श्रेष्ठ छवि है। चालाक राजसी प्रकृत्ति के मध्यम कर्म में लिप्त लोग उनकी चाटुकारिता अपना कार्य साधते हैं जिससे उच्च राजसी पुरुषों को अधिक भ्रम हो जाता है। यही भ्रम कालांतर में उनके लिये संकट का कारण बनता है। सात्विक लोग किसी भ्रम में न पड़कर सत्य तथा ज्ञान के साथ जीवन आनंद से बिताते हैं।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Friday, March 21, 2014

जीवन में सकारात्मक भाव अपनाना चाहिये-विदुर नीति के आधार पर चिंत्तन लेख(jiwan mei sakaratmak bhav apnana chahiye-vidur neeti ka aachar par chinttan lekh)



      मनुष्य के लिये यह संसार वैसा ही बन जाता है जैसा उसका संकल्प होता है। जिनके अंदर नकारात्मक प्रकृत्ति है वह हमेशा ही तनाव में रहते हैं। वह कोई भी काम प्रारंभ करते हैं तो संकटों का आना प्रारंभ हो जाता है जिससे वह उसे बंद कर देते हैं । ऐसे लोग हमेशा ही वार्तालाप में मित्रों के सामने अपने तनाव तथा बीमारियों की चर्चा कर उन्हें भी निराश करते हैं।  इसके विपरीत जिनका मस्तिष्क सदैव सकारात्मक विचारों से प्रेरित होकर काम करते हैं उनके लिये उनका यही संसार अत्यंत अद्भुत हो जाता है। कहा जाता है कि जैसा बोओगे वैसा काटोगे।  यही स्थिति मनुष्य की कार्यशैली पर भी लागू होती है। एक व्यक्ति अहंकारवश किये गये आग्रह को ठुकरा देता है पर वही नम्रता से कहने पर मान जाता है। उसी तरह कुछ लोग काम निकालने के लिये अत्यंत विनम्रता का भाव दिखाते हुए सफल होते हैं जबकि अहंकार दिखाने वाले हमेशा ही निराशा का शिकार होते हैं।
      कहने का अभिप्राय यह है कि  हमें अपने जीवन में सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाना चाहिये। हर व्यक्ति के अंदर बीमारियां तथा तनाव होते हैं पर कुछ उनको भुलाकर अपनी दिनचर्या उत्साह से करते हैं तो कुछ उनका बोझ ढोते हुए चलते हैं। जिनके मन में उत्साह है वह जीवन में ऊंचे लक्ष्य प्राप्त करते हैं पर जो मस्तिष्क में बीमारी, निराशा तथा तनाव का बोझ लेकर चलते हैं वह न केवल स्वयं नाकाम रहते हैं वरन् अपने संगी साथियों को भी हताश करते हैं।

विदुर नीति में कहा गया है कि
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न श्रद्दधाति कल्याणं परेभ्योऽप्यात्मशङ्कितः।
निराकरोति मित्राणि यो दै सोऽधमपूरुषः।।
     हिन्दी में भावार्थ-जिनका अपने पर ही विश्वास नहीं है वह अन्य व्यक्ति से भी अपने कल्याण की अपेक्षा नहीं कर पाते। अपने मित्रों को भी अपने से भी परे करता है। ऐसा व्यक्ति अधम माना जाता है।

      जैसा कि कुछ लोग पानी से  आधे भरे  ग्लास के लिये कहते हैं आधा खाली हैदूसरे कहते हैं कि आधा भरा हुआ है। यह दृष्टिकोण की भिन्नता की पहचान कराने वाला उदाहरण है।  कोई वस्तु हमारे पास नहीं है उसकी चिंता करने की बजाय जो उपलब्ध है उससे अपने काम में बेहतर परिणाम निकालने का प्रयास करना सकारात्मक दृष्टिकोण का भावा दर्शाता है।  इसके विपरीत साधनों की कमी, सहयोगियों के उपेक्षा भाव तथा लक्ष्य की विकटता का विचार करते हुए निष्क्रिय हो जाना नकारात्मक भाव को दर्शाता है।  नकारात्मक भाव के लोगों के पास मित्र न के बराबर होते हैं और सकारात्मक भाव के लोगों के पास एक बड़ा मित्र समूह हो जाता है। इसलिये जीवन में सकारात्मक भाव अपनाते हुए अपना कर्म करना चाहिये।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Wednesday, March 19, 2014

संसार में ज्ञान रटने वाले बहुत है पर चलने वाले कम-संत कबीर दर्शन पर आधारित चिंत्तन लेख(sansar mein gyan ratne wale bahut hain par chalne wale kam-sant kabir darshan par adharit chinttan lekh)



      पूरे विश्व में शाब्दिक धर्मों के  के नाम पर प्रचार करने वालों की संख्या इतनी अधिक है कि उसे देखते यह सुखद कल्पना उपजती है कि संसार पूरी तरह से अपराध रहित तथा  सुखमय  होना चाहिये।  देखा जाये तो हमारे दर्शन के अनुसार धर्म का आशय केवल उच्च मानवीय आचरण से है जिसका कोई दूसरा रूप नहीं हो सकता। धर्म शब्द पवित्र हृदय से मनुष्य की आदर्श सक्रियता की परिभाषा देने वाला है पर इस संसार में धर्म के विभिन्न रूप बना दिये गये हैं।  इतना ही नहीं हर धर्म के सर्वशक्तिमान के दरबारों का रूप भी अलग अलग है। पुस्तकों के नाम और उसमें कथित ज्ञानमय  विषय सामग्री की प्रस्तुति की शैली भी अलग है।  सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि हर शब्दिक धर्म के सर्वशक्तिमान के प्रथक प्रथक रूप और उनको मानने वालों के बीच एक मध्यस्थ भी रहता है जो बताता है कि उन्हें किस तरह उच्च जीवन बिताना चाहिये? इन मध्यस्थों ने हर धर्म के प्रतीक विशेष रंगों का पवित्रीकरण किया है और उसमें ही रंगे वस्त्र पहनते हैं।  राह चलते हुए पता लग जाता है कि वह किस शाब्दिक धर्म से सम्बंधित  करते है।  मजे की बात यह है कि जब कहीं समाज में एकता की बात आती है तो सर्वधर्मभाव का नारा लगाते हुए जनसमूहों के बीच अपनी छवि फरिश्ते जैसी बनाने के लिये चले आते हैं। समाज को बांटकर दिखाने की इनकी नीयत जगजाहिर है पर एकता का प्रपंच कर यह हास्य ही फैलाते हैैं।

संत कबीरदास जी कहते हैं कि

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पढ़ी गुनी ब्राह्मण भये, कर्ति भई संसार।

वस्तू की तो समूझ नहीं, ज्यूं खर चन्दन भार।।

     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-इस संसार में अनेक विद्वान प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन कर लोगों को उपदेश देते हुए प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके हैं परंतु विषय और वस्तु का सत्य ज्ञान के अभाव में उनको गधे के ऊपर लगे चंदन के टीके की तरह भार समझा जाता है।

ज्ञानी ज्ञाता बहु मिले, पण्डित कवी अनेक।

राम रता इन्द्री जिता, कोटी मध्ये एक।।

     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-इस संसार में कथित रूप से ज्ञानी, विद्वान तथा कवि तो  मिलते हैं पर परमात्मा के नाम में रत जितेंद्रिय पुंरुष करोड़ों मे एक होता है।

      हमारे महान संत कवियों के अनुसार सर्वशक्तिमान के किसी भी रूप का निरंतर स्मरण तथा जीवन में उच्च नैतिक सिद्धांतों का पालन करना ही धर्म है।  कथित शाब्दिक धर्मों की पुस्तकों का अध्ययन कर उनका प्रचार करने वाले यह नहीं जानते कि वह अपने अंदर ज्ञानी होने का जो भाव पैदा करते हैं वह भारतीय ज्ञान साधकों की दृष्टि से  अहंकार का प्रमाण होता है। आमतौर से अध्यात्मिक ज्ञान की दृष्टि से श्रीमद्भागवत गीता के समक्ष कोई अन्य ग्रंथ नहीं है पर होता यह है कि तमाम तरह के शाब्दिक ग्रंथों का नाम लेकर उसकी तुलना की जाती है। हैरानी की बात यह है कि सभी  ग्रंथों से श्रीगीता की तुलना करने वाले भारतीय धर्म को ही मानने वाले वह लोग हैं जिनको गीता के ंसंदेश तो रटे हुए है पर उनका आशय समझ से परे है।  इतना ही नहंीं श्रीमद्भागवत गीता के ंसंदेशों के अनुसार ही ज्ञान का होना ही आवश्यक नहीं वरन् उसका आचरण पथ पर प्रदर्शित होना भी जरूरी है इसका अभास चंद लोगों को ही है।  यही कारण है कि तत्वज्ञान साधक अपने ही सभी धर्म समूहों के  पाखंडियों से संबंध रखने में बचते हैं।
      ज्ञान की पहचान वाणी से प्रकट करने में नहीं वरन् व्यवहार में अपनी धारणा शक्ति की प्रबलता होने से बनती है।  इसलिये जहां तक हो सके भारत के प्राचीन अध्यात्मिक ग्रथों को अध्ययन कर उनके संदेशों का प्रयोग अपने जीवन में करना चाहिये। अपना ज्ञान बघारने में अपनी ऊर्जा नष्ट करने की अपेक्षा धर्म पथ पर चलकर शक्ति का संचय करना ही एक श्रेयस्कर काम है। निरंतर अध्ययन, मनन, चित्तन और साधना करने से जब अभ्यास हो जाता है तब जीवन आनंदमय हो जाता है।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Thursday, March 13, 2014

विदुर नीति के आधार पर चिंत्तन लेख-संगत के रंग से बचना संभव नहीं(vidur neeti ka aadhar par chinttan lekh-sangat ke rang se bachna sambhav nahin)



      आमतौर से लोग एक दूसरे के प्रति सद्भाव दिखाते ही है। कोई अनावश्यक विवाद नहीं चाहता इसलिये परस्पर मैत्री भाव दिखाना बुरा नहीं है पर दूसरे के कर्म में दोष होने पर उसे न टोकना एक तरह से उसे धोखा देना ही है। संग रहने वाले व्यक्ति का यह दायित्व है कि वह मित्र को उसके कर्म के प्रति सचेत करे पर कोई इसके लिये करने को तैयार नहीं होता।  हालांकि आजकल लोगों की सहनशीलता भी कम हो गयी। कोई अपनी आलोचना को सहजता से नहीं लेता। यदि किसी मित्र ने आलोचना कर दी तो लोग मित्रता तक दांव पर लगाकर उससे मुंह फेर लेते हैं। जिस व्यक्ति में सहनशीलता या वफादारी का भाव नहीं है उससे वैसे भी संपर्क रखना गलत है। यह  सोचना ठीक नहीं है कि असहज या असज्जन व्यक्ति का हम पर प्रभाव नहीं पड़ेगा।
विदुरनीति में कहा गया है कि
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यदि सन्तं सेवति वद्यसंन्तं तपस्विनं यदि वा स्तेनमेव।
वासी था रङ्गबशं प्रयानि तथा स तेषां वशमभ्यूवैति।।
     हिन्दी में भावार्थ-यदि कोई सज्जन, दुर्जन, तपस्वी अथवा चोर की संगत करता है तो वह उसके वश में ही हो जाता है। संगत का रंग चढ़ने से कोई बच नहीं सकता।
      एक बात निश्चित है कि हम जैसे लोगों के बीच उठेंगे और बैठेंगे उनका रंग चढ़ेगा जरूर चाहे उससे बचने का प्रयास कितना भी किया जाये।  किसी से मित्रता करें या किसी की सेवा करें उसके साथ रहते हुए उसके हाव भाव तथा वाणी की शैली का हम पर प्रभाव अवश्य पड़ता है। कई बार हमने देखा होगा कि कुछ लोग अपने संपर्क वाले व्यक्तियों की बोलने चालने की नकल कर  सुनाते हैं। अनेकों के हावभाव और चाल की नकल कर भी दिखाई जाती है। इससे यह बात समझी जा सकती है कि संगत का असर तो होता ही है। यह अलग बात है कि कुछ लोग अपने संगी या मित्र की पीठ पीछे नकल कर मजाक उड़ाते हैं पर सच यह है कि अपने सामान्य व्यवहार में भी उसकी नकल उनसे ही हो जाती है।
      अगर हम चाहते हैं कि हमारी छवि धवल रहे और हम हास्य का पात्र न बने तो सबसे पहले अपनी संगत पर दृष्टिपात करना चाहिये। जीवन में सहजता पूर्वक समय निकालने के लिये यह एक बढ़िया उपाय है कि अपनी निरंतर भलाई का क्रम बनाये रखने के लिये हम ऐसे लोगों से दूर हो जायें जिनसे हमारे आसपास वातावरण विषाक्त होता है।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Saturday, March 8, 2014

परोपकार करने वाले नाटकीयता का प्रदर्शन नहीं करते-भर्तृहरि नीति शतक के आधार पर चिंत्तन लेख(paropakar karne wal natkiyta ka pradarshan nahin karte-bhritrihari neeti shatak ka adhar pa chinntan lekh A hindi religion thought based on bharathari neei shatak)



      भारत में लोकसभा चुनाव 2014 के लिये कार्यक्रम घोषित किये जा चुका है।  शुद्ध रूप से राजसी कर्म में प्रवृत्त लोगों को लिये एक तरह से यह चुनाव कुंभ का मेला होता है।  हमारे अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार कोई मनुष्य  पूर्ण रूप से सात्विक  या तामसी प्रवृत्ति का हो अपने जीवन निर्वाह के लिये अर्थार्जन का कार्य करना ही पड़ता है जो कि एक तरह से राजसी प्रकृत्ति का ही होता है।  दूसरी बात यह भी है कि राजसी कर्म करते समय मनुष्य को राजसी प्रकत्ति का ही अनुसरण करना चाहिये इसलिये ज्ञानी या सात्विक प्रकृत्ति के व्यक्ति में अर्थार्जन के लिये उचित साधन होने पर उसकी क्रियाओं में दोष देखकर यह मान लेना कि वह अपनी मूल प्रकृत्ति से दूर हो गया, यह विचार धारण करना गलत होगा।  ज्ञानी और सात्विक व्यक्ति राजसी कर्म करने के बावजूद उसमें अपने मूल भाव का तत्व अवश्य प्रकट करते हैं। इसके विपरीत जो राजसी प्रकृत्ति मे हैं वह राजसी कर्म करते समय किसी सिद्धांत का पालन करें यह आवश्यक नहीं होता।  उनके लिये अपना ही लक्ष्य सर्वोपरि होता है। देखा जाये तो सामान्य गृहस्थ हो या राजकीय कर्म करने वाला विशिष्ट व्यक्ति दोनों का लक्ष्य अर्थोपार्जन करना ही होता है।  सामान्य गृहस्थ जहां अपनी गृहस्थी का राजा होता है वहीं राजकीय व्यक्ति को किसी उपाधि की आवश्यकता ही नहीं रह जाती।  राजकीय कर्म तो राजसी प्रकृत्ति से ही किये जा सकते हैं इसलिये वहां पूर्ण सैद्धांतिक शुचिता के पालन की अनिवार्यता की आशा व्यर्थ ही की जाती है। 
भृर्तहरि नीति शतक में कहा गया है कि
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पद्माकरं दिनकरो विकची क्ररीति चन्द्रो विकासयति कैरवचक्रवातम्।।
नाभ्यार्थितो जलधरोऽपि जलं ददाति संतः स्वयं परहिते विहिताभियोगाः।।
     हिन्दी में भावार्थ-सूर्य बिना याचना किये ही कमल को खिला देता है, चंद्रमा कुमुदिनी को प्रस्फुटित कर देता है। बादल भी बिना याचना के ही पानी बरसा देते हैं। इसी तरह सत्पुरुष अपनी ही अंतप्रेरणा से ही परोपकार करते हैं।
      लोकतंत्र में चुनावों के लिये उतरने वाले लोग आम जनमानस को अपनी तरफ आकर्षित करने के लिये अनेक प्रकार के प्रयास करते हैं।  अनेक तरह के वादे तथा आश्वासन देने के साथ ही वह आमजनों को धरती पर ही स्वर्ग दिखाने का सपना दिखाते हैं। एक तरह से देखा जाये तो लोकतांत्रिक राजकीय प्रणाली ने विश्व में पेशेवर शासकों की पंरपरा स्थापित की है। प्रधानमंत्री हो या राष्ट्रपति या अन्य कोई जनप्रतिनिधि वह खजाने से अपने व्यय के लिये प्रत्यक्ष रूप से धन नहीं ले सकता वरन् वह एक सेवक की तरह उसे वेतना प्रदान किया जाता है।  यह अलग बात है कि जितना बड़ा राजकीय पद हो वहां विराजमान व्यक्ति को राज्य के धनपति, साहुकार, तथा उद्योगपति उसी के स्तर के अनुसार भेंट देने के लिये तत्पर रहते हैं जैसे पहले राजाओं को मिलते थे।  हमारे ग्रंथों में ऐसे अनेक उदाहरण है जब राजपद धारण करने पर राज्य के जमीदार, साहुकार तथा धनवान अपने राजा को भेंट देते थे।  इस तरह की भेंट लेना कम से कम हम जैसे अध्यात्मिक दृष्टि से कोई गलत नहीं है। यह  अलग बात है कि राजपद पाने के लिये उत्सुक लोग स्वयं को एक त्यागी व्यक्ति के रूप में प्रचारित कर जनमानस का हृदय जीतने का प्रयास करते हैं।  त्याग का भाव सात्विक कर्म का परिचायक है जिसकी उपस्थिति राजसी कर्म  में नहीं की जा सकती।
      यही से आधुनिक लोकतंत्र में अनेक नाटकों का प्रारंभ हो जाता है। इधर उदारीकरण ने निजी क्षेत्र को अधिक अवसर प्रदान किये हैं।  तेल से लेकर खेल तक और संचार साधनों से लेकर प्रचार माध्यमों तक पूंजीपतियों का एकछत्र राज्य हो गया है। मनोरंजन कार्यक्रमों में फूहड़ कामेडी तो समाचारों में नाटकीय घटनाक्रम को महत्व मिल रहा है।  कभी कभी तो यह लगता है कि फिल्म के अभिनेता फिल्म या धारावाहिक में पटकथा के आधार पर जिस तरह अभिनय करते हैं उसी तरह खिलाड़ी भी मैच खेलते हैं।  उससे ज्यादा मजेदार बात यह है कि अनेक लोग तो केवल इसलिये समाज सेवा या राजकीय उपक्रम इस तरह करते हैं ताकि उनको प्रचार माध्यमों में स्थान मिलता रहे।  हालांकि प्रचार माध्यम उनकी मजाक उड़ाते हैं पर फिर भी उनके बयानों पर बहस और चर्चा करते हैं जिसके दौरान उनके विज्ञापनों का समय खूब पास होता है। हम यह भी कह सकते हैं कि प्रचार प्रबंधक और बाज़ारों के स्वामियों का कोई संयुक्त उपक्रम हैं जो इस तरह के नाटकीय पात्रों का सृजन कर रहा है जिससे समाज अपनी समस्याओं को भूलकर मनोरंजन में लीन रहे।  कोई जनविद्रोह यहां न फैले वरन् यथास्थिति बनी रहे।
      अब तो समाचार और नाटकों में कोई अंतर ही नहीं दिख रहा।  जैसे जैसे यह चुनाव पास आयेंगे उसी तरह नाटकीय का दौर बढ़ेगा यह बात प्रचार माध्यमों के प्रबंधक स्वयं कह रहे हैं। योग तथा अध्यात्मिक साधकों ने जिज्ञासावश नहीं वरन् कौतूहल से इस नाटकीयता को देखें।  यह नाटकीय लोग देश और समाज की फिक्र करते दिखते हैं। आर्थिक और प्रशासनिक व्यवस्था को जनोन्मुखी बनाने का दावा करते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि समाज सेवा का व्रत इस तरह लिया है जिसमें चंदा और भेंट मिलती रहे। हम यह समझ लेना चाहिये कि परोपकारी लोग कोई प्रचार नहीं करते। वह कोई योजना नहीं बनाते।  सबसे बड़ी बात यह है कि वह कोई दावा नहीं करते।  हमारा देश तो वैसे भी भगवत्कृपा से संपन्न है।  इसे कोई संपन्न क्या बनायेगा? गरीबों को कोई अमीर बना नहीं सकता और कोई लालची अमीरों के आगे हाथ फैलाने से कोई बच नहीं सकता।  कुछ लोग गरीब हैं पर वह भिखारी नहीं है जिसे यह लोग संपन्न बनाने का दावा करते हैं। गरीब अपने श्रम पर जिंदा हैं और इनमें से अधिकतर जानते हैं कि उनके भले का नारा लगाकर कोई भी राजकीय पद प्राप्त कर लें पर फायदा देने वाला नहीं है।  अंततः उनको अपने श्रम का पैसा किसी धनी से ही मिलता है इसलिये उसके मिटने की कामना भी वह नहीं करते। राज्य बना रहे यही कामना उनकी भी रहती है ताकि उनका जैसा भी घर चल रहा है वैसे चलता भी रहे। परोपकार का दावा करने वालों से वह भीख मांगने नहीं जाते यह अलग बात है कि इस तरह के ढोंग में लीन लोगों को अपने लोकप्रिय होने की खुशफहमी प्रचार की वजह से हो जाती है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Wednesday, March 5, 2014

तुलसीदास दर्शन-कलह को अनदेखा नहीं करना चाहिये(tulsidas darshan-kalah ko andekha n karen)



      भारत में लोकसभा के चुनाव 2014 में होने हैं।  इसके लिये देश में प्रचार अभियान जोरों पर है।  एक तरफ सत्ता पक्ष दावा करता है कि उसने देश के विकास का काम जमकर किया है दूसरी तरफ विपक्ष जमकर यह प्रचार कर रहा है कि सत्ता पक्ष ने कुछ काम नहीं किया।  इस बहस का निष्कर्ष तो चुनाव परिणाम आने पर ही पता लगेगा पर एक बात तय है कि आर्थिक उदारीकरण की कथित प्रणाली देश के समाज को आंदोलित कर दिया है।  जहां हम यह देख रहे हैं कि भौतिक साधनों का उपभोग बड़ा है जिसे विकास कहा जाता है तो वहीं आर्थिक असमानता ने देश में एक भारी कलह की स्थिति भी पैदा की है। मुदा्रस्फीति की दर के साथ ही महंगाई भी बढ़ी है जिसने मध्यम वर्गीय परिवारों को निम्न वर्ग में लाकर खड़ा कर दिया है। मजे की बात यह है कि जहां से धन लेना है वहां तो मध्यम वर्गीय लोग गरीब कहलाने के लिये तैयार हैं पर जहां उपभोग का प्रश्न आये तो वहां सभी एक दूसरे से होड़ करना चाहते हैं।  बैंक या बाज़ार से कर्ज लेकर स्वयं को सभ्य कहलाने के लिये उनके यह प्रयास अच्छे लगते हैं पर जब उसे चुकाने की बात आती है तो उनकी हवा निकल जाती है।

संत तुलसीदास कहते हैं कि
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कलह न जानब छोट करि, कलह कठिन परिनाम।
गत अगिनि लघु नीच गृह, जरत धनिक धन धाम।।
     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-कलह को कभी छोटा विषय नहीं मानना चाहिये। कलह का परिणाम अत्यंत भयानक होता है। एक छोटे आदमी के घर में लगी आग धनिकों के महल तक नष्ट कर देती है।

      आर्थिक विशेषज्ञ भले ही देश के विकसित होने की बात करते हों पर सामाजिक विशेषज्ञों की दृष्टि से देश में इस कारण जो जातीय, भाषाई, क्षेत्रीय, धार्मिक तथा आर्थिक आधार पर जो कलह या वैमनस्य का वातावरण बन गया है वह अत्यंत चिंताजनक है।  दूसरी बात यह भी है कि जिन लोगों ने धन का प्रचुर मात्रा में संग्रह किया है उन्होंने अपने आसपास आर्थिक विपन्नता की उपस्थिति से मुंह फेर लिया है।  इससे अल्प धनिक लोगों के मन में संपन्न लोगो के प्रति जो निराशा तथा वैमनस्य  का भाव है उसका अनुमान सामाजिक विशेषज्ञ ही कर सकते हैं।  हमारे देश में अनेक समाज सेवक उस कलह को रेखांकित करते हैं जो अंततः अपराध को जन्म देती है।  यह अपराध चाहे स्वयं के प्रति हो या दूसरे के प्रति अंततः उसका परिणाम समाज को ही भोगना होता है।  प्रचार  माध्यमों में इस विषय पर चर्चा या बहस होती तो है पर उसका स्तर सतही रहता है।  सच बात तो यह है कि देश में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, भाषाई तथा क्षेत्रीय कलह को निपटाने का गंभीर प्रयास होना चाहिये तभी देश में खुशहाली लायी जा सकती है।


दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Saturday, March 1, 2014

चाणक्य नीति दर्शन-गरीबी और अमीरी के आधार पर आदमी का मूल्यांकन नहीं होता(chankya neeti darshan-garibi aur amiri ke adhar par admi ka mulyankan nahin hota)



            हमारे देश में गरीब, मजदूर तथा निम्न आय वाले व्यवसायियों के साथ हमदर्दी का एक बकायदा अभियान आजादी के साठ वर्षों से चल रहा है।  पश्चिम में जन्मे कार्ल मार्क्स ने अपना एक ग्रंथ लिखकर मजदूरों के मसीहा की छवि पायी और उसके भारतीय अनुयायी प्रायः देश में व्याप्त आर्थिक विरोधाभासों पर टिप्पणियां कर यह प्रमाणित करने का प्रयास करते है भारी मात्रा में पूंजीपतियों के अलावा वह सभी वर्ग और वर्ण के लोगों सरंक्षण की सोचते है। इन्हें जनवादी या वामपंथी बौद्धिक समुदाय का सदस्य कहा जाता है। इन्हंी के विचारों का अनुरकरण प्रगतिशील या समाजवादी बौद्धिक लोगों भी करते हैं। जनवादी तथा प्रगतिशील विचारकों में बस इतना ही अंतर है कि जनवादी संपूर्ण प्रजा और उसकी गतिविधियों पर राज्य का नियंत्रण चाहते हैं और प्रगतिशील आंशिक रूप से ही इसे स्वीकार करते हैं।
            आमतौर पश्चिम में एकदम खुली अर्थव्यवस्था है जिसमें राज्य की भूमिका बहुत अधिक नहीं रहती। कार्ल मार्क्स ने गरीबों और मजदूरों के भले को लेकर जो दर्शन प्रस्तुत किया है उसमें यह माना गया है कि मनुष्य केवल भौतिक तत्वों से जुड़कर ही प्रसन्न रह सकता है और राज्य की यह जिम्मेदारी है कि वह समस्त प्रजा का स्वयं लालन पालन करे। हमारे देश के बुद्धिमानों ने उसका आधा विचार इसलिये माना क्योंकि उनको लगा कि भारत में जहां अध्यात्म ज्ञान की प्रधानता है वहां मार्क्स दर्शन पूरी तरह से अपनाना की बात करना स्वयं को विद्वान के रूप में प्रतिष्ठित करने के बाधा पैदा करना होगी। यही कारण है कि गरीब और मजदूर के भले का नारा देते हुए अनेक लोगों ने प्रतिष्ठा, पद और पैसा पाया। भारत में समाज कल्याण का नारा भले ही लोकप्रिय है पर फिर भी लोग अपने प्राचीन ग्रंथों से विमुख नहीं हुए। यही कारण है कि हमारे इस देश में भौतिकता का जाल फैलने के बावजूद लोग आज भी अध्यात्म ज्ञान में अपनी रुचि रखते हैं।

चाणक्य नीति में कहा गया है कि
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धनहीनो न हीनश्च धनिकः सुनिश्चयः।
विद्यारत्नेन वो हीनः सर्ववस्तुषु।।
            हिन्दी में भावार्थ-हमेशा ही धन रहित व्यक्ति हीन नहीं होता और न ही धनवान दृढ़ व्यक्तित्व का स्वामी होता है।

            हमारे यहां आर्थिक विकास का महत्व तभी माना जाता है जब मनुष्य का चारित्रिक, वैचारिक तथा व्यक्तित्व की छवि का आधार भी मजबूत हो।  किसी के पास बहुत धन सपंदा हो मगर उसका चरित्र, वैचारिक तथा मानसिक तत्व पतनशील हो तो उसे सम्मान नहीं मिलता।  पाश्चात्य अर्थशास्त्र के अनुसार मनुष्य भी अन्य जीवों की तरह ही केवल दैहिक क्रियाओं तक ही सीमित रहता है इसलिये उसे केवल सांसरिक विषयों पर ही सुविधा देना राज्य का दायित्व है जबकि हमारे देशी अर्थशास्त्र के अनुसार मनुष्य का मन भी होता है जो भौतिकता से प्रथक विषयों पर विचरण करना चाहता है। रोटी दैहिक अंतिम सत्य है पर मन की भूख उससे कहीं ज्यादा होती है। मुख्य बात यह है कि श्रम के आधार पर जीवन जीने वाले गरीब, मजदूरी या छोटे व्यवसायी धन की दृष्टि से हीन होते हैं पर इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि वह भिखारी या अज्ञानी हैं।  देखा यह जा रहा है कि जन कल्याण का नारा देने वाले यही समझते हैं कि जिसके पास अल्प धन है उसे हेय मानते हुए उसे संपन्नता प्रदान करने का दायित्व राज्य ले।  इतना ही नहीं अनेक कथित समाज सेवी तो गरीबों की सेवा करने का दावा इस तरह करते है जैसे कि वह भिखारियों को दान देते हों। सच बात तो यह कि किसी भी समाज का सही संचालन श्रमिक वर्ग करता है भले ही वह स्वयं धन अधिक अर्जित नहीं कर पाता मगर सारी गतिविधियों का आधार वही होता है।
            कहने का अभिप्राय यह है कि धन के आधार पर आदमी गरीब या अमीर नहीं होता। चरित्र, विचार तथा व्यवहार के आधार पर व्यक्ति की छवि बनती और बिगड़ती है। अगर ऐसा नहीं होता तो गरीब श्रम नहीं करते और हमारे देश में भिखारियों की संख्या कहीं अधिक होती। इसका मतलब यह है कि हमारे देश में गरीबों, मजदूरों और छोटे व्यवसायियों का एक बहुत बड़ा वर्ग है जो धन कम मिलने के बावजूद भीख मांगने की बजाय  श्रम में रत रहना पसंद करता है और इससे भारतीय अध्यात्मिक दर्शन के सशक्त होने की पुष्टि भी होती है। 

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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