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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका
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Saturday, June 29, 2013

चाणक्य नीति-मणि भी स्वर्ग में जड़े जाने की अपेक्षा रखता है (chanaklya neeti-mani bhee swarg mein jade jaane ke apeksha rakhta hai)



           यह मानव  का स्वभाव है कि वह सांसरिक विषयों में हमेशा अन्य लोगों से श्रेष्ठ दिखने का प्रयास करता है।  सभी लोग एक दूसरे से भौतिक उपलब्धियों  की प्राप्ति में आगे निकलना चाहते हैं।  यही कारण है कि माया सभी को नचा रही है। माया ही उन्नति का प्रमाण है तो वह पतन का कारण भी बनती है।  मनुष्य मन की तृष्णा उसे इधर उधर भगाती हैं।  इधर सुख मिलेगा वह एक मार्ग पकड़ता है। वहां पहुंचकर उसे लगता है कि दूसरी जगह आनंद मिलेगा। वह उधर भागता है।  भौतिक वस्तुओं की उपलब्धि उसे विचार शक्ति से शून्य  कर देती है।  इस भागमभाग में अनेक बार मनुष्य को कष्ट का सामना करना पडता है।
       सोने का मृग कभी नहीं  बना पर भगवान श्रीराम ने जब मारीचि को स्वर्णमृग में रूप में देखा तो उसे पाने का मोह पाल बैठे।  वह तो बहुत ज्ञानी ध्यानी थे फिर भी मृग मारीचिका का शिकार बने तो फिर आम आदमी की बिसात ही क्या? भौतिक उपलब्धियों में डूबा मनुष्य कभी प्रसन्न नहीं रह पाता।  जब तक इच्छित वस्तु  मिली नहीं है तब तक आदमी उसके लिये जी भर के संघर्ष करता हैं। जब वह मिलती है तो क्षणिक प्रसन्नता मिलने के बाद  फिर दूसरी का मोह जागता हैं। संसार का यह सत्य  सब जानते हैं फिर भी आदमी बेबस है।
चाणक्य नीति  में कहा गया है कि
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न निर्मितः केन न दृष्टमूर्ख न श्रृवते हेममयः कुरंगः।
तथापि तृष्णा रघुनन्दतस्य विनाशकाले विपरीत बुद्धिः।।
       हिन्दी में भावार्थ-स्वर्ण का मृग न कभी पहले देखा गया न बाद में, फिर भी भगवान श्री राम का मन उसे पाने के लिये लालायित हो उठा।  सच है मन की तृष्णा ही  विनाशकाल के लिये विपरीत बुद्धि का निर्माण करती है।
गुणैः सर्वज्ञतुल्योऽपि सीदत्येको निराश्रयः।
अनर्ध्यमपि माणिक्यं हेमाश्रयमपेश्चपेक्षते।।
              हिन्दी में भावार्थ-सभी प्रकार के गुण होते हुए ईश्वर के सामन व्यक्तित्व वाला व्यक्ति भी आश्रयहीन होने पर दुःख उठाता है।  अत्यंत मूल्यवान मणि भी स्वर्ग में जड़े जाने की अपेक्षा रखता है।
       इस बेबसी का कारण यह है कि मानव मन हमेशा ही समाज में प्रशंसा पाने के लिये तरसता है। भौतिक उपलब्धियों की प्रतियोगिता से अगर वह बाहर बैठ जाये तो त्यागी हो जायेगा। ज्ञानी हो जायेगा। यकीनन उसके अंदर अध्यात्मिक चेतना का जागरण होगा पर यह स्थिति उसे अकेला बना देती है।  सांसरिक पदार्थों के लिये भागमभाग कर रहे लोग उसकी तरफ देखते भी नहीं।  कह देते हैं कि यह तो रिटायर हो गया है या बूढ़ा हो गया है या फिर जीवन में सक्रिय रहने की इसकी औकात नहीं है।
     इस बात से बड़े से बड़ा ज्ञानी नहीं झेल पाता और वह अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिये हमेशा ही भौतिक संसार में लगा रहता है।  यह अलग बात है कि ऐसे ज्ञानियों की धारणा शक्ति क्षीण होती है। सच्चा ज्ञानी तो वही है जो अपने त्याग का महत्व समझते हुए सांसरिक विषयों से उतना  ही सम्बन्ध  रखता है जिससे उसी आवश्यकता की पूर्ति होती रहे। वह इतना धन संचय नहीं  करता कि उसके लिये अपने आध्यात्मिक ज्ञान से दूर होना पड़े।  ज्ञान तथा ध्यान के लिये समय ही न मिले। इसलिये वह अपने कर्म में निष्काम भाव से संलग्न रहता है। ऐसे में भौतिक संसार उसके लिये कष्टमय इस अर्थ  में होता है लोग उस पर सम्मान से भरी दृष्टि नहीं डालते पर इस स्थिति को  यह सोचकर वह सहन करता है कि अज्ञानियों में अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करने के लिये प्रयास करना व्यर्थ है।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 



Sunday, June 23, 2013

मनु स्मृति-नियमों से अधिक यम का पालन धर्म केलिए महत्वपूर्ण (manu smriti-yan se adhik niyam dharm ke liye mahatvapoorn)




    हमारे देश में धर्म के नाम पर जितना भ्रम है अन्यत्र कहीं है।  श्रीमद्भागवत गीता में यज्ञों के दो प्रकार बताये गये हैं-एक द्रव्यमय यज्ञ दूसरा ज्ञान यज्ञ!  द्रव्यमय यज्ञ का आशय यही है कि भौतिक पदार्थों के माध्यम से परमात्मा का स्मरण किया जाये। ज्ञान यज्ञ का आशय यह है कि परमात्मा को तत्व से जानकर उसका स्मरण किया जाये।  देखा यह गया है कि हमारे देश के कथित घार्मिक ठेकेदारों ने धर्म के नाम पर अपने व्यवसाय चमकाने के लिये द्रव्यमय यज्ञ का ही प्रचार किया करते है।  स्थिति यह है कि अनेक जगह कथित रूप से ज्ञानयज्ञ भी होते हैं पर उसमें लोगों को दान दक्षिणा देकर पैसे की उगाही की जाती है। उनसे द्रव्य का दान करने के लिये कहा जाता है।  स्पष्टतः ज्ञान का यह एक तरह से व्यापार है।
      धर्म के निर्वाह के दो रूप हैं- यम और नियम।  यमों का पालन किया जाये तो धर्म स्वतः ही फल प्रदान करने लगता है।  यम में अहिंसा,सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह का पालन करना होता है।  यमों को धारण करना बाहर दिखता नहीं है इसलिये उसके आधार पर पाखंड करना कठिन है।  जबकि नियमों का पालन बाहर नजर आता है और उससे दूसरे की प्रशंसा पाने का मोह पूरा हो सकता है इसलिये लोग उनका पालन करते दिखना चाहते हैं।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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यमान्स्सेवेत सततं न नित्यं नियमानबुधः।
यमान्यतन्यकुर्वाणो नियमान्केवलान्भजन्।।
         हिन्दी में भावार्थ-मनुष्य नियमों की उपेक्षा कर यमो का पालन करना ही वास्तविक धर्म है। यमों की बजाय   जो मनुष्य  नियमों के  पालन की तरफ जो ध्यान देता है वह अधिक समय तक सफलता प्राप्त न करते हुए  शीघ्र पतन को प्राप्त होता है।
      हमारे यहां धर्म के नाम पर इधर उधर जाकर परमात्मा के विभिन्न स्वरूपों के मंदिरों पर उनके दर्शन करने की प्रवृत्ति अधिक देखी जाती है। दरअसल जिनके पास पैसा और समय होता है वह उसे व्यय करने को मार्ग ढूंढते हैं।  ऐसे लोग धर्म का मतलब नहीं जानते पर धार्मिक दिखना चाहते हैं।  इसलिये पर्यटन के नाम पर रमणीक स्थलों पर मंदिरों के दर्शन करने जाते हैं।  इनमें ऐसे भी शामिल लोग हैं जो अपने ही शहरों के मंदिरों पर जाना तो दूर घर में ही परमात्मा के स्वरूपों की मूर्तियों पर मत्था तक नहीं टेकते। मत्था टेकने की बात तो छोड़िये, अनेक लोग  मूर्ति बाज़ार से खरीदकर अपने घर की दीवार पर टांगते हैं या फिर अलमारी में रखते हैं पर फिर उसे देखते तक भी नहीं है। ऐसे लोग दूर शहरों  में मंदिरों में भगवान के दर्शन करने का दावा इस तरह करते हैं कि वह प्रथ्वी के अकेले ऐसे वासी हैं जिनको साक्षात भगवान ने दर्शन दिये।  यह धर्म के नाम पर पाखंड के अलावा कुछ नहीं है। ऐसा करके दूसरों के सामने आत्मप्रवंचना करना धर्म नहीं होता। धर्म वह विषय है जिसमें संलिप्त होने से स्वयं को प्रसन्नता का आभास हो। 

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Monday, June 17, 2013

चाणक्य नीति-बुरे इंसानों को बेहतर बनाना संभव नहीं (chanakya policy-bure insanon ko behtar banana sambhav nahin)



       मूलतः यह एक प्रकार से निराशावादी दृष्टिकोण हो सकता है पर सत्य तो सत्य ही होता है कि इस संसार में जिस व्यक्ति की जैसी प्रकृति एक बार बन गयी और अगर उसमें विकृतियां हैं तो फिर किसी भी प्रकार से उसकी बुद्धि को शुद्ध नहीं किया जा सकता।  बचपन से ही जैसी प्रवृत्तियां मनुष्य मन में स्थापित हो जाती हैं तो वह अंत तक उसके साथ ही चलती हैं।  जिनका मन बचपन से ही अध्यात्म की तरफ मुड़ जाये तो  उनके विचार और व्यवहार में शुद्धता स्वतः ही बनी रहती है पर जिसे केवल सांसरिक विषयों का ही अध्ययन कराया जाये  उसमें उन्माद, क्रोध, अहंकार तथा लोभ की प्रवृत्ति स्वतः आ जाती हैं। यह अलग बात है कि कोई अध्यात्मिक साधना की तर्फ मुड़ जाये तो वह अपने निकृष्ट प्रकृत्तियों पर स्वतः निंयत्रण कर लेता है मगर ऐसा विरले ही लोगों के साथ होता है।
आचार्य चाणक्य कहते हैं कि
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दुर्जनं सज्जनं कर्तृमुपायो न हि भूतले।
अपानं शतधा धौतं न श्रेष्ठमिन्द्रियं भवेत्।।
    सामान्य हिन्दी भाषा में भावार्थ-दुष्ट व्यक्ति को सज्जन बनाने के लिए इस धरती पर कोई उपाय नहीं है।  जैसे मल त्याग करने वाली इंद्रियां सौ बार धोने पर भी श्रेष्ठ इंद्रियां नहीं बन पातीं।
      दुर्जन से सज्जन बन जाने की धटनायें अपवाद स्वरूप हो जाती है।  ऐसा भी होता कि किसी स्वार्थी प्रकृति के मनुष्य के साथ कोई दुर्घटना घट जाये तब वह मानसिक रूप से टूट जाता है। यह सही है कि ऐसे में उसके व्यवहार में परिवर्तन आता है।  आमतौर से दुष्ट प्रकृति के मनुष्य  में कभी सुधार नहीं होता। पाश्चात्य विचारधाराओं के अनुसार दुष्ट व्यक्ति में सुधार हो सकता है यहां तक तो ठीक है पर वह इसे भी मानती हैं कि समूचा समूह ही भ्रंष्ट ये इष्ट बनाया जा सकता है।  यही बात भारतीय अध्यात्म से मेल नहीं खाती। किसी दुष्ट समूह में एक दो व्यक्ति सुधर जाये पर सभी सदस्य देवता नहीं बन सकते। दूसरी बात यह भी कि किसी मनुष्य में सुधार प्राकृतिक कारणों से आता है पर कोई दूसरा मनुष्य यह काम करे यह संभव नहीं है। इसलिये जिनके बारे में हमारी धारणा अच्छी नहीं है उनसे व्यवहार ही नहीं रखना चाहिये। रखें तो किसी प्रशंसा की उम्मीद करना व्यर्थ है।   


दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Sunday, June 9, 2013

रहीम के दोहे-सुख के समय ही दुःख के लिये सहायक ढूंढें (rahim ke dohe-sukh ke samay he dukh ke liye sahayak dhoondhe



        जीवन में सुख दूख आते जाते हैं।  यह अलग बात है कि सुख का समय लंबा होने से आदमी आत्ममुग्ध हो जाता है।  जऐ  जब दुःख के पल कम होने पर भी निकल जाने तक अत्यंत मुश्किल लगते हैं। कहीं वह अधिक लंबे हुए तो आदमी टूट जाता है।  दूसरी बात यह भी है कि सुख के समय आदमी धन का संचय तो करता है पर मित्र संग्रह पर उसका ध्यान नहीं होता। भौतिक उपलब्धियां उसे इतना आत्ममुग्ध कर देती हैं उसे लगता है कि मायावी संसार में बिना मांगे मित्र ही उसके पास आ जायेंगे।  सच बात तो यह है कि धन की खुशबु पाकर कोई भी मित्र बन जाता है पर ऐसे लोगों की विपत्ति में सहायता नहीं मिलती। धन, बाहुबल, और पद की श्रेष्ठता के कारण कोई भी दरबार लगा सकता है। ढेर सारे दरबारी भी मिल जायेंगे पर ऐसा मित्र जो विपत्ति में सहायता करे, समय पड़ने पर  मुश्किल है।
कविवर रहीम कहते हैं कि
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धन दारा अस सुतन सों, लगो रहे नित चित्त।।
नहिं रहीमकोऊ लख्या, गाढ़े दिन को मिल।
         सामान्य हिन्दी में भावार्थ-जब मनुष्य के पास धन, पत्नी और पुत्र का सुख होता है तब उसी में ही सारा ध्यान लगाये रहता है। जब कोई विपत्ति आती है तब वह सहायता के लिये इधर उधर ताकता है। उसी समय उसे भगवान की याद आती है।
       कहने का अभिप्राय यह है कि जब हमारा समय ठीक चल रहा हो तब भी भविष्य में बुरे समय की आशंकाओं का अनुमान अवश्य करते रहना चाहिये। उसके अनुसार ही ऐसा प्रबंध भी करें ताकि कोई प्रतिकूल परिस्थितियां आयें तो उनका सामना किया जा सके।  साथ ही जब अपने पास भौतिक सुख हो तब भी अपनी अध्यात्मिक चेतना को जाग्रत रखते हुए अहंकार तथा मद से दूर रहते हुए सभी से अपना व्यवहार बनाये रखना चाहिये। समय पड़ने पर कौन काम आ जाये यह कोई नहीं जानता।      

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Sunday, June 2, 2013

संत कबीर के दोहे-धनी गुरु को चेलों से खतरा रहता है (sant kabir ke dohe-amir guru ko chelon se khatra rahta hai)



          अगर देखा जाये तो पैसे की औकात केवल जेब तक ही रहती है जबकि अज्ञानी लोग इसे सदैव अपने सिर पर धारण किए रहती है।। वह बात-बात में अपने धनी होने का प्रमाणपत्र लेकर आ जाते हैं। अपनी तमाम प्रकार डींगें  हांकते है। परमार्थ से तो उनका दूर  दूर तक नाता नहीं होता। जो लोग ज्ञानी हैं वह जेब मैं पैसा है यह बात अपने दिमाग में लेकर नहीं घूमते। आवश्यकतानुसार उसमें से पैसा खर्च करते हैं पर उसकी चर्चा अधिक नहीं करते। आजकल जिसके भी घर जाओं वह अपने घर के फर्नीचर, टीवी, फ्रिज, वीडियो और कंप्यूटर दिखाकर उनका मूल्य बताना नही भूलता और इस तरह प्रदर्शन करता है जैसे कि केवल उसी के पास है अन्य किसी के पास नहीं। कहने का अभिप्राय है कि लोगों के सिर पर माया अपना प्रभाव इस कदर जमाये हुए है कि उनको केवल अपनी भौतिक उपलब्धि ही दिखती है।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि
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माया दासी संत की साकट की शिर ताज
साकुट की सिर मानिनी, संतो सहेली लाज
               सामान्य हिंदी भाषा में भावार्थ- माया तो संतों के लिए दासी की तरह होती है पर अज्ञानियों का ताज बन जाती है। अज्ञानी लोग का माया संचालन करती है जबकि संतों के सामने उसका भाव विनम्र होता है।
गुरू का चेला बीष दे, जो गांठी होय दाम
पूत पिता को मारसी, ये माया के काम
                    सामान्य हिंदी भाषा में भावार्थ- शिष्य अगर गुरू के पास अधिक संपत्ति देखते हैं तो उसे विष देकर मार डालते है। और पुत्र पिता की हत्या तक कर देता है।

         सामूहिक स्थानों पर लोग आपस में बैठकर अपने धन और आर्थिक उपलब्धियों पर ही चर्चा करते हैं। अगर कोई गौर करे और सही विश्लेषण करे तो लोग नब्बे फीसदी से अधिक केवल पैसे के मामलों पर ही चर्चा करते हैं। अध्यात्म चर्चा और सत्संग तो लोगों के लिए फ़ालतू का विषय  है । इसके विपरीत जो ज्ञानी और सत्संगी हैं वह कभी भी अपनी आर्थिक और भौतिक उपलब्धियों पर अहंकार नहीं करते। न ही अपने अमीर होने का अहसास सभी को कराते हैं।
                वैसे जिस तरह आजकल धार्मिक संस्थानों में संपतियों को लेकर विवाद  और मारामारी मची है उसे देखते हुए यह आश्चर्य ही मानना चाहिये कि कबीरदास जी ने भी बहुत पहले ही ऐसा कोई  घटनाक्रम देखा होगा इसलिए ही चेताते हैं कि गुरुओं को अधिक संपति नहीं रखना चाहिये।  आजकल अनेक संत इस सन्देश कि उपेक्षा कर संपति संग्रह में लगे हुए हैं इसलिए ही विवादों में  भी घिरे रहते हैं। इतना ही नहीं अनेक धार्मिक स्थानों पर तो आथिक कारणों से खून खराबा तक हो जाता है| देखा जाए तो आध्यात्मिक सस्थान एकांत में होना चाहिए पर लोग उसे सामूहिक स्थानों पर करना चाहते है जिसका लाभ धार्मिक ठेकेदार उठाना चाहते है, जिसके कारण उनके आपस में ही विवाद होते हैं|


दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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