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Saturday, April 13, 2013

मनुस्मृति के आधार पर चिंत्तन-वानप्रस्थ से पहले अपनी भौतिक संपदा का दान करें (hindu thought of manu smriti-vanprasth se pahale apni bhautik sampada ka tyag karen)

             हमारे देश में सन्यास और सन्यासी को लेकर कभी सार्वजनिक रूप से परिभाषित किया ही नहीं जाता। इसका कारण यह है कि जिन लोगों को सन्यास या वानप्रस्थ का सही अर्थ बताना चाहिये वही गेरुए या सफेद वस्त्र पहनकर इस तरह समाज के सामने प्रस्तुत होते हैं जैसे कि वह भारी भरकम आत्मज्ञानी हों।  इतना ही नहीं स्वयंभू गुरु बनकर वह अपने शिष्यों से धन संपदा संग्रह करने के साथ ही उनसे अपने पांव भी पुजवाते हैं।  भारतीय अध्यात्म ज्ञान में सिद्ध होने का दावा करने वाले यह पेशेवर महापुरुष समाज को भौतिक यज्ञ करने के लिये ही प्रेरित करते हैं।  इतना ही ज्ञान यज्ञ के नाम पर यह ऐसे कार्य करते हैं जिनका धार्मिक कर्मकांडों से संबंध तो होता है पर अध्यात्म के विषय से उनका कोई सरोकार नहीं माना जा सकता।  हमारे अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार तो सन्यास का सीधा अर्थ संसार के भौतिक साधनों का पूरी तरह से त्याग करना ही है। सन्यास ग्रहण करने के बाद केवल प्रकृति से निर्मित वस्तुओं का ही उपभोग करना आवश्यक है ।  पहनना, ओढ़ना और सोना हमेशा ही प्रकृति प्रधान वस्तुओं का ही जुड़ा  होना चाहिये । वस्त्रों के रूप में मृगचर्म या फिर पेड़ के पत्तों को ओढ़ना चाहिये। भोजन में फल और कंदमूल का सेवन करना ही श्रेयस्कर माना जाता है।  कहने का अभिप्राय यह है कि मानव निर्मित वस्तुओं का उपभोग एक तरह से निषिद्ध है। देखा जाये तो सन्यास के इस रूप में आज के अनेक गुरु खरे नहीं उतरते।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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प्राजापत्यां निरुप्येर्ष्टिसर्ववेदसदक्षिणाम्।
आत्मन्यग्नीसमारोप्य ब्राह्म्णः प्रव्रजेद्गृहात्।
       हिन्दी में भावार्थ-वानप्रस्थ आश्रम में रहने वाले को चाहिये कि वह अपनी सारी संपत्ति दान देने के साथ ही परमात्मा के प्रति धन्यवाद ज्ञापित करने के लिये यज्ञ का आयोजन करे। इसके पश्चात् आत्मज्ञान की ज्योति को जलाकर सन्यास के लिये प्रस्थान करे।
यो दत्वा सर्वभूतेभ्यः प्रव्रजत्यभवं गृहात्।
तस्य तेजोमया लोक भवन्ति ब्रह्मवादिनः।
        हिन्दी में भावार्थ-सभी जीवों को अभयदान देकर वानप्रस्थ के लिये  सन्यास ग्रहण करने वालों को तेजपूर्ण लोकों की प्राप्ति होती है।
         सन्यासी को न तो किसी निंदा करना चाहिये न किसी के व्यक्ति के मन में भय पैदा कर उसका हृदय अपने अनुकूल बनाने के प्रयास करना चाहिये।  उसे किसी की मधुर वाणी पर मुग्ध और कटु वाणी पर क्रुद्ध होने के भाव से भ परे होना चाहिये।  जबकि इसके विपरीत हम देख रहे हैं कि जिन्होंने धर्म क्षेत्र में शिखर पर अपनी जगह बनाई है वह आम लोगों में उसका प्रभाव भी दिखाते हैं।  राजसी पुरुषों के अपने शिष्य होने के दावे के प्रचार   के लिये वह उनके साथ खिंचवाये गये फोटो की प्रदर्शनी भी लगाते हैं।  अनेक कथित धर्मगुरु यह कहते थकते नहीं कि वह तो सन्यासी हैं पर अपने पास आने वालों लोगों को वह उनके स्तर के अनुसार दर्शन देते हैं।  अनेक गुरु तो आम तथा विशिष्ट लोगों को दर्शन देने के लिये अलग अलग स्थान निर्धारित करते हैं।  हम उन लोगों की निंदा नहीं कर रहे। हमारा कहना तो यह है कि धर्म के क्षेत्र में उनका यह पेशा है और यह कोई बुराई नहीं है।  हमारा उद्देश्य तो यह बता कहना है कि किसी को वस्त्र, वाणी, या व्यक्तितत्व देखकर उसे सन्यासी मानकर उसके सामीप्य प्राप्त करने का प्रयास नहीं करना चाहिये।  ऐसे में हम अपने जीवन में आये भटकाव से बच नहीं सकते क्योंकि उन पेशेवर साधुओं के पास कोई ऐसी युक्ति नहंी है जिससे  मनुष्य तनाव से बच सकते।  इसके लिये सबसे बेहतर उपाय तो यही है कि अपने अध्यात्मिक ग्रंथों का स्वयं ही अध्ययन करें। उसके संदेशों को समझकर जीवन के प्रति अपना उचित दृष्टिकोण बनाये।  अध्यात्मिक चिंत्तन और मनन की यह प्रक्रिया स्वतः ही मस्तिष्क में वैचारिक स्फृर्ति पैदा करती है और हमें किसी अन्य से राय लेने से बचाती है ।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 



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