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Sunday, April 11, 2010

संत कबीर के दोहे-धामिक व्यक्ति दूसरे जीवों का कल्याण कर अपना धर्म प्रमाणित करता है (Dhamik vyakti ki pahachan-kabir ke dohe)

फलं कतकवृक्षस्य यद्यप्यम्बुप्रसादकम्।
न नामग्रहणादेव तस्य वारि प्रसीदति।।
हिन्दी में भावार्थ-
निर्मली का वृक्ष जल को शुद्ध करता है भले ही उसकी जानकारी सभी को नहीं है। उसका नाम लेने से जल शुद्ध नहीं होता बल्कि वह स्वयं उपस्थित होकर जल शुद्ध करता है। उसी प्रकार धर्म की जानकारी होना ही पर्याप्त नहीं बल्कि उसे अन्य जीवों का कल्याण कर प्रमाणित करना चाहिए। नाम लेने से आदमी धार्मिक नहीं हो जाता।
दुषितोऽपि चरेद्धर्म यत्रतत्राश्रमे रतः।
समः सर्वेषु भूतेशु न लिंगे धर्मकारणम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
चाहे घर में हो या आश्रम में शास्त्रों के ज्ञाता को चाहिए कि सामान्य प्राणियों के दोषों से ग्रसित होने पर भी सभी को समान दृष्टि से देखे। वह धर्म का अनुसरण करते हुए अपना व्यवहार हमेशा शुद्ध रखे पर उसका प्रदर्शन न करे-अभिप्राय यह है कि धर्म का वह पालन करे पर और उसका दिखावा करने से दूर रहे।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे समाज में धर्म का दिखावा करने वालों की संख्या बहुत है पर उस अमल कितने लोग करते हैं यह केवल ज्ञानी लोग ही देख पाते हैं। अगर समूचे भारतीय समाज पर दृष्टिपात करें
तो पूजा, पाठ, तीर्थयात्रा, सत्संग तथा दान करने वाले लोगों की संख्या बहुत दिखाई देती है पर फिर नैतिक और सामाजिक आचरण में निरंतर गिरावट होती दिख रही है। लोग धार्मिक पुस्तकों के ज्ञान की चर्चा करते हुए एक दूसरे को सिखाते खूब हैं पर सीखता कोई दृष्टिगोचर नहीं होता। लोग दान करते हैं पर कामना के भाव से-उनका उद्देश्य समाज में प्रतिष्ठा अर्जित करना होता है या फिर प्राप्तकर्ता के कथित आशीर्वाद की चाहत उनके मन में होती है और इसी कारण कारण कुपात्र को भी दान देते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि धर्म का दिखावा कोई धार्मिक व्यक्ति होने का प्रमाण नहीं है।
उसी तरह धर्म के रक्षा के नाम पर विश्व में अनेक लोग तथा संगठन बन गये हैं-उनका उद्देश्य केवल अपने लिये धन तथा प्रतिष्ठा अर्जित करना होता है न कि वास्तव में सामाजिक कल्याण करना। धर्म नितांत एक निजी विषय है न कि अपने मुंह से कहकर सुनाने का। जिस व्यक्ति को यह प्रमाणित करना है कि वह धार्मिक प्रवृत्ति का है उसे चाहिये कि वह दूसरों की सहायता कर उसे प्रमाण करे। कुछ लोग धर्म के नाम हिंसा को उचित ठहराने का प्रयास करते हैं। अपने घर की रक्षा करने की कर्तव्य क्षमता तक उनमें होती नहीं और धर्म के नाम पर धन और अस्त्र शस्त्र के संचय में लगकर वह हिंसा के व्यापारी बन जाते हैं- राम तथा बगल में छुरी रखने वालों की पहचान इसी तरह की जा सकती है कि कौन आदमी वास्तव में किसका भला करता है और कौन कितना उसकी आड़ में अपना व्यापार करता है। सच्चा धामिक व्यक्ति वही है रो अपने करम तथा व्यवहार से दूसरों को शान्ति तथा सुख प्रदान करता है। इसके विपरीत पाखंडी लोग धर्मं कि बातें बहुत करते हैं पर उनके हाथ से किसी की भला हो यह संभव नहीं होता क्योंकि उनकी ऐसी नीयत भी नहीं होती।
लेखक, संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
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